भरे बाजार में वह अचानक सामने पड़ गई और हाथ पकड़कर घर चलने का इसरार करने लगी. मौके की नजाकत जानकर वह बिना हील-हुज्जत किए उसके पीछे-पीछे चल दिया.
स्टोरनुमा कमरे में फोल्डिंग पलंग पर बैठा हुआ वह मकड़ी के जाले से अटी पड़ी लकड़ी की कड़ि़यों पाली धुआं-आलूद छत की ओर बार-बार देख लेता. इसी बीच स्ओव सुलगाकर उसने बाल्टी में मग डाला और चाय के अंदाज वाला पानी एल्यूमिनियम के भगोने में डालती हुई बोली—
‘छोटे बाबू, आपने हमें अपनी शादी में भी नहीं बुलाया!’
उसे लगा, बिम्मों उसका मजाक उडा रही थी. घर में उपेक्षित-तिरस्कृत एक बेरोजगार पोस्ट ग्रेजुएट को कौन अपनी लड़की देगा.
‘मैं शादी-वादी से बहुत दूर हूं. हर तरफ भ्रष्टाचार, सिफारिश, भाई-भतीजावाद! समस्याएं ही समस्याएं! पता नहीं इस देश का क्या होगा. इस सबके खिलाफ हमें लड़ना होगा.’
उसे छोटे बाबू की बात पर बेहद हैरानी हुई. कैसी बहकी-बहकी बातें करने लगे हैं. पहले कितनी अच्छी कविताएं सुनाते थे. चांद का मुखड़ा, दुल्हन की सूनी सेज...विरहा रातें...उन दिनों वह सब कहां समझ पाती थी वह. कहते थे, अरी बिम्मो की बच्ची, नाक तो साफ कर ले....अगर पढ़ेगी नहीं तो अच्छा दूल्हा कैसे मिलेगा. चल खोल पाठ....’
‘इधर कैसे आना हुआ बाबू?’
इस प्रश्न से वह हकबका गया. तुरंत ही उसने चाय का सिप लिया तो छुरी की मानिंद उसके हलक में उतर गई. जीभ तिलमिला उठी, ‘उफ!’ उसके मुंह से निकला.
‘जरा धीरे-धीरे पीओ बाबू....जल्दी भी क्या है?’ वह खिलखिला पड़ी.
‘मुझे सवा चार की गाड़ी पकड़नी है. बस यूं ही इधर एक गोष्ठी में भाग लेने आया था.’ वह इस बात को पचा गया कि क्लर्क की पोस्ट का असफल इंटरव्यू देकर लौट रहा था.
‘तेरा पति कहां है री?’ उसने विषय बदला. इस पर बिम्मो की आंखें नम हो गईं. वह धीरे-धीरे बोली—‘वो स्कूल के लड़की की फीस बैंक में जमा करने हैडक्लर्क के साथ गए थे. कैश का थैला इनके पास था. बीच में बदमाशों ने घेर लिया. अपनी जान दे दी पर कैश नहीं जाने दिया....बाद में स्कूल कमेटी ने उनकी जगह मुझे चपरासी के पद पर रख लिया...’
‘तू शादी क्यों नहीं कर लेती...अभी तो पूरी जिंदगी काटनी है.’ यह कहते ही उसने चाय खत्म करके प्लेट-कप पलंग के नीचे सरका दिया.
‘कौन करेगा मुझसे शादी?’ खूबसूरती हरेक के भाग में नहीं होती बाबू!’ वह यह सब कहना चाहती थी, पर मौन रह गई.
उसके जी में आया कि वह उसका हाथ पकड़कर कह दे, ‘मैं करूंगा तुझसे शादी....मैं अंदर की खूबसूरती देखता हूं....मैं टूट चुका हूं बिम्मों इन आठ सालों में....’
‘क्या सोचने लगे छोटे बाबू?’
‘बोल तुझे कैसा लड़का चाहिए, मेरे जैसा?’
‘आपकी मजाक की आदत नहीं गई अभी तक!’ वह फीकी हंसी में बोली—‘अब पसंद-वसंद से क्या....कोई भी हो, बस छोटी-मोटी नौकरी से लगा हो या अपना अपना धंधा हो....’
यह सुनते ही वह ठगा-सा रह गया. उसने घड़ी देखने का बहाना किया, ‘अरे! बहुत देर हो गई....सिर्फ पंद्रह मिनट रह गए हैं गाड़ी आने में. अच्छा बिम्मों मैं देखूंगा तेरे लायक कोई लड़का.’ वह उठा और लंबे-लंबे डग भरता हुआ गली के बाहर आ गया.
वह बड़बड़ाया, ‘साली मेरा मजाक उड़ाती है. मां ने तो चैका-बरतन साफ करते हुए जिंदगी गुजार दी. चपरासी की नौकरी क्या मिल गई—दिमाग ही खराब हो गया—हूं, नौकरी वाला लड़का चाहिए.’
कहीं उसने यह सुन तो नहीं लिया, यह सोचते हुए उसने पीछे मुड़कर देखा—‘गली के मोड़ पर बिम्मों श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़े खड़ी थी.
प्रस्तुति: विनायक
‘कदम-कदम पर हादसे’ से
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