एक दिन प्रेमिका ने प्रेमी से कुछ इस प्रकार वार्तालाप किया—
‘कल जब पापा ने मुझसे पूछा कि मैं उन लोगों से अच्छी तरह क्यों नहीं बोली, मैंने जवाब दिया—‘पापा, मैंने हजार बार कह दिया है कि मैं शादी नहीं करूंगी. तो वह बोले—तेरी मंशा क्या है?....मैंने जवाब दिया—अगर फिर कोई मेरी शादी के लिए इस घर में आएगा तो मैं जहर खा लूंगी. तो पापा चुप हो गए. रात पापा को दिल का तीसरा दौरा पड़ा....’
लेखक परेशान हो गया, ‘यह तो बहुत बुरा हुआ.’
प्रेमिका धीरे-से बोली—‘बताओ रवि, अब मैं क्या करूं?’ पापा जब ठीक हुए तो कहने लगे कि कम से कम मैं अपनी छोटी बहन का तो ख्याल रखूं—वह भी शादी-योग्य हो चुकी है.’ इसपर लेखक कुछ नहीं बोला तो प्रेमिका बोली—‘रवि, मुझे अपनी चिंता नहीं पर छोटी बहन की चिंता है—जब तक मेरी शादी न होगी, उसकी शादी कैसे हो सकती है.’
‘ठीक है, तुम शादी कर लो, अपन का क्या है, थोड़ा दुख और सह लेंगे.’ लेखक का गला यह कहते-कहते भर्रा-सा गया था. कुछ देर मौन रहकर प्रेमिका बोली, ‘करने दो उन्हें अपने मन की. हम शरीर से ही तो जुदा होंगे—मन से हमें कौन जुदा करेगा. हमारी आत्मा एक है....’
इस पर लेखक कुछ नहीं बोला. कमरे में नीरवता छाए रही. कुछ देर बाद प्रेमिका उसके पास से चली गई.
दूसरे दिन जब उसका पापा आफिस जा रहा था, तो रास्ते में चलते-चलते वह पूछ बैठा—‘अब आपकी तबियत कैसी है?’
एक तो प्रेमिका का पापा पहले से ही लेखक से किलसता रहता था, ऊपर से उसने एक गैर जरूरी बात पूछी थी. अतः वह और भी किलस गया—‘क्यों, मुझे क्या हुआ है?’
वह आश्चर्य बिखेरता हुआ बोला, ‘परसों, रात आपको हार्ट अटैक नहीं हुआ?’
‘यह सुनते ही लड़की का बाप बौखला गया, ‘दिल का दौरा पड़े तुम्हारे बाप को. मुझे जैसे भले-चंगे को बीमार करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती!’
प्रस्तुति: विनायक
कालीचरण प्रेमी द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह ‘अंधा मोड़’ से.
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