‘क्या तुम मेरी बेटी को खुश रख सकोगे?’
‘यह बात आप अपनी बेटी से पूछें!’ और लेखक ने मुरझाये चेहरे पर उगी, धूल—जमी दाढ़ी पर हाथ फेरा.
‘मैं तुमसे अत्यंत घृणा करता हूं.’ प्रेमिका के पापा ने उसे घूरते हुए कहा. उसके बटन टूटे कुर्ते में सीने से बाहर झांक रहे बालों को देखा, वह और भी उबल पड़ा—‘तुम लीचड़ आदमी, शादी वाली बात सोच भी कैसे सके!’
‘क्या यही कहने के बुलाया था आपने मुझे?’
इतने में प्रेमिका दो कप चाय लाई और मेज पर रखकर मुड़ चली. जाते-जाते उसने मुस्कराते हुए कनखियों से प्रेमी को घूरा. लेकिन वह मुंह नीचा किए बैठा रहा. जबकि प्रेमिका का पापा तीव्र गुस्से से उस फटेहाल युवा कवि को घूर रहा था. गोया कि उसे कच्चा चवा जाएगा.
‘अच्छा लो चाय उठाओ.’ पता नहीं क्यों सुंदर लड़की का बाप ठंडा पड़ गया था. अपमानित युवा लेखक ने चाय का कप उठाया और धीरे-धीरे सिप करने लगा. इसी बीच जवान लड़की के बाप ने कई महत्त्वपूर्ण निर्णय ले लिए थे. अतः वह अचानक बोल पड़ा—‘कहो तो तुम्हारी सर्विस के लिए ट्राई करूं?’ इस पर पोस्ट ग्रेजुएट बेरोजगार चौंक पड़ा.
‘लेकिन तुम्हें मेरी लड़की को भूलना होगा.’ इस पर भी उसे चौंकना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हुआ.
‘अच्छा तुम ऐसा करना, एम्लायमेंट एक्सचेंज में नाम लिखवा देना. वैकेंसी में क्रिएट करा दूंगा.’
लड़की के बाप की बात को नजरंदाज करते हुए गरीब लेखक उठा और उसे नमस्कार करके चला आया.
उसके आते ही बी. ए. पास लड़की का पापा बराबर सोच रहा कि आखिर उस कमजोर युवक में ऐसा क्या था कि उसकी सुंदर लड़की ने जहर खाने की धमकी दी थी. जाहिर था कि वह उसकी कलम पर मर मिटी थी.
‘हूं!’ लड़की के बाप ने खुद से कहा—‘भगवान भी कैसे-कैसों को लिखने की ताकत दे देता है.’
उधर लेखक सारी रात खुद को समझाता रहा कि वह शर्त वाली नौकरी कभी स्वीकार नहीं करेगा.
प्रस्तुति: विनायक
लघुकथा संग्रह ‘कदम—कदम पर हादसे’ से
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