वह स्वागत कक्ष में अन्य उम्मीदवारों की तरह बैठ गया, जो मंत्रीजी को अपनी तकलीफें सुनाने आए थे. लोग उसके मैले कुर्ते-धोती की तरफ घूर रहे थे और वह निगाह चुराते हुए सामने दीवार पर टंगी अधनंगे गांधीजी की आयल पेंटिंग को लगातार देख रहा था. पत्नी ने कहा था—
‘तुम भूखे मरो, पर बच्चों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है. इस मरे अखबार ने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा. जवान लड़की की शादी कब करोगे? कुछ तो अपने सफेद बालों का लिहाज करो.’
इस पर वह कुछ न बोला तो पत्नी बिफर पड़ी-‘मैंने दो बजे रात को तुम्हारे दोस्त के लिए चाय बनाई है. ताजा खाना बनाकर खिलाया है. तुम अगर उसके पास नहीं गए तो मैं बाल-बच्चों को जहर खिला दूंगी.’
‘पर भागवान! इतनी दूर जाना है, कम से कम सौ रुपये तो होने चाहिए!’ पत्नी यह सोचकर कि उसके पति को भगवान ने अकल दे दी है, दुगने उत्साह से पड़ोसन के यहां गई और न जाने किस जुगत से एक सौ रुपये ले आई.
अचानक कक्ष में बेचैनी फैल गई. नेता, पत्रकार, व्यापारी से लगने वाले चेहरे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए. जवाब में मंत्रीजी मुस्कराते हुए सबका अभिवादन करने लगे. अचानक उनकी नजर फटेहाल दाढ़ी वाले व्यक्ति पर पड़ी.
‘अरे, शशांक तुम?’ मंत्रीजी ने अपने लंगोटिया यार को तुरंत पहचान लिया और उसका हाथ पकड़कर अपने कक्ष में चले गए. लोगों को अचंभा हुआ कि मंत्री महोदय कैसे-कैसे सड़ियल लोगों से दोस्ती रखते हैं. शशांक तो जैसे गदगद हो गया.
‘भाभी-बच्चे कैसे हैं?’ मंत्रीजी ने उत्साहवश पूछा तो शशांक ने दुगने उत्साह से कहा—‘तुम्हारी भाभी ने इतना जोर डाला कि मुझे मजबूरन आना पड़ा.’ मंत्रीजी ने घंटी बजाकर काफी लाने का आर्डर दे दिया.
‘आने में तो कोई दिक्कत नहीं हुई? मुझे लिख देते, सीट रिजर्व हो जाती.’ अचानक शशांक को अपनी सारी देह दुखती मालूम पड़ी. गाड़ी में इतनी भीड़, उफ्! बामुश्किल टट्टी के पास बैठने लायक जगह मिली थी.
‘सर! सेठ रामदास जाने को कह रहे हैं.’ सेक्रेटरी ने चिक उठाते हुए अंदर झांका और आंखों ही आंखों में दोनों के बीच कुछ कहा गया.
‘शशांक मैं इन लोगों को भेजकर अभी आया, तुम आराम से बैठो.’
शशांक लंबी यात्रा के कारण थका हुआ था. काफी पीते ही उसे ऐसी झपकी आई की गहरी नींद सो गया. जब उसकी आंख खुली तो शाम हो चुकी थी. नौकर उसे जगाकर चाय देकर जाने लगा तो उसने पूछा— ‘आपके मंत्रीजी कहां हैं?’
‘हुजूर, बड़े मिनिस्टर का फोन आया था, दिल्ली से. वो हवाई जहाज से गए हैं, चार दिन के लिए.’
‘चार दिन के लिए?’
‘हां, हुजूर, वो कह गए हैं कि आपको कोई तकलीफ न हो—भोजन कैसा लेंगे?’
शशांक कुछ बोल न सका. उसको बिस्कुट का स्वाद मिट्टी जैसा लगने लगा.
अर्दली ने फोन मिलाया और अपने अधिकारी को अवगत करा दिया. अधिकारी ने मंत्रीजी से कहा—‘सर, शशांक नाम का आदमी चला गया है.’
‘मंत्रीजी उस समय स्थानीय डाक बंगले पर लजीज भोजन कर रहे थे. अधिकारी की बात पर वे तनिक मुस्कराए और इत्मीनान से पानी का गिलास उठाकर पीने लगे.
प्रस्तुति: विनायक
जगदीश कश्यप के लघुकथा संग्रह 'कदम-कदम हादसे' से
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