मूसलाधार बारिश में रामदीन की कोठरी लगातार टपक रही थी. सुन्न कर देने वाली ठंड में रामदीन की पत्नी झुनिया भगवान को कोस रही थी और उसके दोनों बच्चे ‘बापू-बापू’ की आवाज में ठिठुरते हुए डकरा रहे थे.
रामदीन साहब का विश्वसनीय नौकर था, उनके बाप के जमाने का.
‘आज के नौकर बड़े हरामजादे होते हैं. न काम, न धाम, बस तनख्वाह बढ़ा दो.’ साहब ने यह बात उस वक्त कही जब रामदीन अंग्रेजी शराब की बोतल ले आया और बोरी का छाता सिर पर रखे, ठिठुरता हुआ आगामी हुक्म का मुंतजिर था.
‘भई नौकर है तो कमाल का.’ मेहमान ने कहा, ‘देखो, कहीं से भी लाया पर इतनी रात में इस ब्रांड की दूसरी बोतल मिलनी मुश्किल थी. पहली बोतल में तो मजा आया नहीं.’ यह कहते उन्होंने अपनी जेब में हाथ डालकर नोट निकाला और बोले—‘ये लो बाबा दस रुपये. बाल-बच्चों के लिए कुछ ले जाना. बड़ी ठंड पड़ रही है और देखो, तुम भीग गए हो, कहीं बीमार न पड़ जाओ.’
बाबा शब्द से रामदीन चौंक गया. अभी तो वह अड़तालीस साल का है. दाढ़ी रखने का यह मतलब तो नहीं कि आदमी बूढ़ा हो गया—‘रामदीन ले लो, हम तुम्हें खुशी से दे रहे हैं.’
इसपर कोठी के मालिक ने गर्वपूर्वक कहा, ‘ये हमारा वफादार नौकर है, एक पैसा बख्शीश का न लेगा.’
मालिक ने कहा, ‘अच्छा रामदीन रात हो गई है. तुम अब जाओ. आज हम तुमसे बहुत खुश हैं.’ ऐसा कहते ही उन्होंने एक पैग चढ़ा लिया और बुरा-सा मुंह बनाकर काजू की प्लेट की तरफ हाथ बढ़ाया.
यद्यपि रामदीन ठंड से बुरी तरह कांप रहा था, तथापि वह खुशी-खुशी कोठरी की ओर बढ़ रहा था, यह बताने के लिए आज मालिक उससे बहुत खुश हैं.
प्रस्तुति: विनायक
‘कदम-कदम पर हादसे’ से
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