इस बार मित्र का चेहरा तमतमा उठा. चाय का आखिरी घूंट खत्म करते हुए और समोसे-बरफी मिश्रित डकार लेते हुए बोले-‘सुनो जिस दिन हमारे समाज में विवाह-संस्था टूट जाएगी-समझो चारों ओर अनैतिकता फैल जाएगी. मैं विवाह संस्था को समाज के लिए अनिवार्य मानता हूं.’
‘लेकिन मित्रवर, आपने तो कहा है कि लघुकथा को अगर विधा मान भी लें तो इसमें क्या हानि है? और अगर इसे उपविधा मान लें तो इसमें क्या हानि है?’
‘हां, यह तो मैं अब भी कहता हूं. इसमें बुरा क्या है?’
‘‘नहीं-नहीं, इसमें कोई बुराई नहीं. अगर तुम विवाह संस्था को मानकर अपनी लड़की की शादी कर दो तो इससे लाभ क्या है? और तुम्हारी लड़की किसी की रखैल बनकर रहे तो इसमें नुकसान क्या है....मित्र जितना गुस्सा तुम्हें आया है, उससे कहीं अधिक गुस्सा हमें तुम्हारे ऊल-जुलूल वक्तव्यों पर आता है. जब कोई रचना प्रक्रिया विधागत स्वरूप ग्रहण करती है, उसके पीछे एक शास्त्र-सम्मत तर्क होता है. अच्छा तुम ईमानदारी से बताओµ‘क्या तुम विधि-सम्मत पत्नी के बजाय रखैल रखना पसंद करोगे?’’
मैं कुछ और कहता, इससे पहले वह गुस्से में अपना झोला संभाले उठ खड़ा हुआ बोला-‘मित्र मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी.....मैंने तुम्हारे लिए क्या-क्या नहीं किया, पर तुमने साहित्यिक माहौल को अश्लील बनाकर रख दिया. आखिर तुमने साहित्य को दिया ही क्या है?’
ऐसा कहते ही उसने प्लेट में रखा आलू का चिप्स उठाकर उसने मुंह में रखा और बोला-‘देखो ये बातें लिख मत देना, वरना मैं कहीं का नहीं रहूंगा. अच्छा चलो, मीठा पान खिलाओ.’
प्रस्तुति विनायक
यूएसएम पत्रिका, मार्च-अप्रैल-1989
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