दियासलाई से सुल्फे की गोली सेंकता हुआ एक भिखारी दूसरे से बोला—
‘आज तो कुल ग्यारह रुपये की दिहाड़ी ही बनी है. चार रुपये का घाटा हो गया.’
दूसरा सिपाही कच्ची शराब की बोतल को पास ही रखे एल्यूमिनियम के मगों में खाली कर रहा था, बोला—
‘अपनी तो आज बोहनी ही अच्छी हो गई, पूरे चालीस रुपये बन गए.’
‘आज कहां हाथ मारा स्साले?’
‘सुबह काम पर निकला ही था कि एक घर में से झगड़े की आवाज सुनकर मैं उसी द्वार पर जा खड़ा हुआ. औरत कह रही थी कि....घर में आटा नहीं है. कहीं से लाओ वरना भूखा रहना पड़ेगा....और आदमी कह रहा था कि वह कहां से लाए. जो भी है, पहली तारीख तक भूखा रहना ही पड़ेगा.’
‘मैं तो भूखी रह लूंगी, पर बच्चों का क्या होगा?’
‘बच्चे जाएं भाड़....अच्छा बाबा देखता हूं. दो-चार के पांव पकड़ूंगा. कहीं से उधार मिला तो ले आऊंगा.’ कहकर आदमी बाहर निकला तो सामने मैं खड़ा था. मैंने झोली फैला दी—‘दाता तुम्हारी मुराद पूरी करे, बाबू साहब.’ उसने मुझे पचास पैसे दिए और दिन में मैंने जिससे भी मांगा, किसी ने खाली हाथ नहीं लौटाया. बड़ा कर्मों वाला आदमी लगता है.’
‘छोड़ यार!’ पहले भिखारी ने टोका—‘क्यों मजा खराब करता है. चल उठा और पी.’
दोनों ने अपने मग एक सांस में खाली कर दिए. फिर वह बैठे सुल्फे से भरी चिलम फूंकते रहे. थोड़ी देर बाद दूसरे भिखारी को जैसे कुछ याद आ गया. वह एक जोरदार कश लगाकर खांसने के बाद वहीं पसरता हुआ बोला—‘यार दिल कहता है....दो-चार किलो आटा लेकर उसके घर दे आऊं.’
प्रस्तुति: विनायक
लघुकथा संग्रह ‘कदम—कदम पर हादसे’ से
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