Sunday, October 24, 2010

आखिरी खंबा

शहर के अंतिम सिरे पर लगे बिजली के खंभे ने एक सुनसान रात को नगर के फैशनेबल इलाके में स्थित खंभे से तार के माध्यम से पूछा
कहो यार, कुछ तो सुनाओ, मैं तुम्हारी नगरपालिका का अंतिम खंभा हूं. मेरे आगे तो घोर अंधेरा और वीरान इलाका फैला हुआ है. जहां झींगुरों और जंगली जानवरों की अजीब-अजीब आवाजें सुनाई देती हैं.’
दूसरे खंभे ने जवाब दिया‘क्या बताऊं दोस्त, सारे दिन के शोर से मैं तो तंग आ गया हूं. कई नशेबाजों की कारें मुझसे टकराई हैं. गश्ती सिपाही बेमतलब मुझे डंडा मार-मारकर ठेली वह रिक्शेवालों को एक तरफ हटने की चेतावनी देते रहते हैं. कई आवारा कुत्ते मेरी जड़ में मूत जाते हैं. शाम के समय लड़कियां और औरतें सामने वाले ठेले से चाट के पत्ते लाकर बातें करती हुई खाती हैं और पत्ते मेरी जड़ मैं फेंक देती हैं, जबकि इस काम के लिए कूड़ेदान लगा हुआ है. और इन पाने खाने वालों के मुंह में आग लगे, जो भी मेरे पास से गुजरता है, पिच्च से मुझपर थूक देता है. दोस्त सैकड़ों दुख हैं, क्या-क्या गिनवाऊं!’
आखिरी खंभे को पहली बार महसूस हुआ कि शहर के खंभे से कितना सुखी है. तभी उसे अपने नीचे खुसर-पुसर की आवाज सुनाई दी. शायद बल्ब बदलने वाले आए हैं. उसे समझते देर नहीं लगी कि इस बार नगर में कोई बड़ा आदमी आने वाला है या चुनाव का चक्कर चलेगा, वरना शहर के इस आखिरी खंभे को कौन पूछता है!’
प्रस्तुति : विनायक
कदम-कदम पर हादसे’ से

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