Wednesday, October 6, 2010

पालतू

जब गेटमैन अंदर से कुछ पूछकर आया तो बोला—‘आप वहां ला॓न में बैठिए, साहब ने बोला है.’
मंजुल ने आंखों से चश्मा उतारा और दुर्लभ फूलों वाली क्यारियों को देखते हुए गमलों में लगे कैक्टस और फूलदार पौधों को निहारने लगे.
अरे मंजुल जी हैं!’ आज इधर कैसे आना हुआ?’ साहब के साथ-साथ एक बौना कुत्ता पीछे-पीछे आकर उछल-कूद करने लगा.
दफ्तर में तो आपको सिर उठाने की फुर्सत नहीं है. लोग-बाग आपको घेरे रहते हैं. इधर से गुजर रहा था, सोचा मिलता चलूं.’
अच्छा किया, आप आ गए. मैंने सोचा था, आप नाराज चल रहे हैं.’
इस पर मंजुल वर्मा व्यंग्य से बोले—‘पता नहीं क्यों आपने लल्लू-पंजुओं को सिर पर बैठा रखा है. वे लोग अपने अखबारों में आपकी बखिया उधेड़ते हैं और आप हैं कि....’
डांट वरी वर्मा जी, करने दो जो करता है, चली इसी बहाने हमें अपनी कमियां भी पता चल जाती हैं. बोलो क्या पियेंगे?’ शायद बाहर आने से पहले साहब चाय के लिए कह दिया था. तभी चपरासी चाय की ट्रे लाता दिखाई दिया.
चाय हाथ में आते ही मंजुल ने प्लेट में से एक बिस्कुट निकाला और धीरे-धीरे चबाने लगा. बौना कुत्ता संपादक के पैरों को सूंघने लगा उसने भयवश पैर सिकोड़ लिए.
ये काटता नहीं है वर्मा जी.’ और साहब ने हंसते हुए एक बिस्कुट हवा में उछाला. कुत्ते ने फौरन लपक लिया. जिस तरह किर्र-किर्र की आवाज कुत्ते के पतले मुंह से आ रही थी, मंजुल ने नोट किया कि वैसी ही किर्र-किर्र उसके मुंह में भी हो रही थी. वह कुछ उत्साह में आया और बोला—‘आपने इस शहर के विकास में क्या कुछ नहीं किया!’
देखो वर्मा जी, अगले महीने हम मध्ययम वर्ग के लिए सस्ते मकान देने की स्कीम लांच कर रहे हैं. अंदर जो तीन आदमी बैठे हैं उनसे ही आपको काफी मदद करानी है. वायदा रहा, स्कीम का विज्ञापन आपको सबसे पहले मिलेगा.’
गदगद हो उठे वर्मा जी बोले—‘हम तो आपके ही भरोसे हैं. हमारा अखबार पीत-पत्रिकारिता के विश्वास नहीं करता. अच्छा, मैं चलता हूं.’
साहब ने मुस्कराते हुए मंजुल से हाथ मिलाया और हाथ में पकड़े बिस्कुट को एक बार फिर हवा में उछाला. बौने कुत्ते ने बेचूक लपक लिया.
जैसे ही मंजुल वर्मा गेट से बाहर हुआ, साहब बुदबुदाने लगे. इस बुदबुदाहट से गेटमैन ने अंदाजा लगाया कि साहब जिसे कुत्ते की गाली बकते हैं, ऐसे ही बुदबुदाते हैं.
प्रस्तुति : विनायक
'कदम-कदम पर हादसे' से

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