Thursday, September 30, 2010

बबूल

भरे बाजार में वह अचानक सामने पड़ गई और हाथ पकड़कर घर चलने का इसरार करने लगी. मौके की नजाकत जानकर वह बिना हील-हुज्जत किए उसके पीछे-पीछे चल दिया.
स्टोरनुमा कमरे में फोल्डिंग पलंग पर बैठा हुआ वह मकड़ी के जाले से अटी पड़ी लकड़ी की कड़ि़यों पाली धुआं-आलूद छत की ओर बार-बार देख लेता. इसी बीच स्ओव सुलगाकर उसने बाल्टी में मग डाला और चाय के अंदाज वाला पानी एल्यूमिनियम के भगोने में डालती हुई बोली—
छोटे बाबू, आपने हमें अपनी शादी में भी नहीं बुलाया!’
उसे लगा, बिम्मों उसका मजाक उडा रही थी. घर में उपेक्षित-तिरस्कृत एक बेरोजगार पोस्ट ग्रेजुएट को कौन अपनी लड़की देगा.
मैं शादी-वादी से बहुत दूर हूं. हर तरफ भ्रष्टाचार, सिफारिश, भाई-भतीजावाद! समस्याएं ही समस्याएं! पता नहीं इस देश का क्या होगा. इस सबके खिलाफ हमें लड़ना होगा.’
उसे छोटे बाबू की बात पर बेहद हैरानी हुई. कैसी बहकी-बहकी बातें करने लगे हैं. पहले कितनी अच्छी कविताएं सुनाते थे. चांद का मुखड़ा, दुल्हन की सूनी सेज...विरहा रातें...उन दिनों वह सब कहां समझ पाती थी वह. कहते थे, अरी बिम्मो की बच्ची, नाक तो साफ कर ले....अगर पढ़ेगी नहीं तो अच्छा दूल्हा कैसे मिलेगा. चल खोल पाठ....’
इधर कैसे आना हुआ बाबू?’
इस प्रश्न से वह हकबका गया. तुरंत ही उसने चाय का सिप लिया तो छुरी की मानिंद उसके हलक में उतर गई. जीभ तिलमिला उठी, ‘उफ!’ उसके मुंह से निकला.
जरा धीरे-धीरे पीओ बाबू....जल्दी भी क्या है?’ वह खिलखिला पड़ी.
मुझे सवा चार की गाड़ी पकड़नी है. बस यूं ही इधर एक गोष्ठी में भाग लेने आया था.’ वह इस बात को पचा गया कि क्लर्क की पोस्ट का असफल इंटरव्यू देकर लौट रहा था.
तेरा पति कहां है री?’ उसने विषय बदला. इस पर बिम्मो की आंखें नम हो गईं. वह धीरे-धीरे बोली—‘वो स्कूल के लड़की की फीस बैंक में जमा करने हैडक्लर्क के साथ गए थे. कैश का थैला इनके पास था. बीच में बदमाशों ने घेर लिया. अपनी जान दे दी पर कैश नहीं जाने दिया....बाद में स्कूल कमेटी ने उनकी जगह मुझे चपरासी के पद पर रख लिया...’
तू शादी क्यों नहीं कर लेती...अभी तो पूरी जिंदगी काटनी है.’ यह कहते ही उसने चाय खत्म करके प्लेट-कप पलंग के नीचे सरका दिया.
कौन करेगा मुझसे शादी?’ खूबसूरती हरेक के भाग में नहीं होती बाबू!’ वह यह सब कहना चाहती थी, पर मौन रह गई.
उसके जी में आया कि वह उसका हाथ पकड़कर कह दे, ‘मैं करूंगा तुझसे शादी....मैं अंदर की खूबसूरती देखता हूं....मैं टूट चुका हूं बिम्मों इन आठ सालों में....’
क्या सोचने लगे छोटे बाबू?’
बोल तुझे कैसा लड़का चाहिए, मेरे जैसा?’
आपकी मजाक की आदत नहीं गई अभी तक!’ वह फीकी हंसी में बोली—‘अब पसंद-वसंद से क्या....कोई भी हो, बस छोटी-मोटी नौकरी से लगा हो या अपना अपना धंधा हो....’
यह सुनते ही वह ठगा-सा रह गया. उसने घड़ी देखने का बहाना किया, ‘अरे! बहुत देर हो गई....सिर्फ पंद्रह मिनट रह गए हैं गाड़ी आने में. अच्छा बिम्मों मैं देखूंगा तेरे लायक कोई लड़का.’ वह उठा और लंबे-लंबे डग भरता हुआ गली के बाहर आ गया.
वह बड़बड़ाया, ‘साली मेरा मजाक उड़ाती है. मां ने तो चैका-बरतन साफ करते हुए जिंदगी गुजार दी. चपरासी की नौकरी क्या मिल गई—दिमाग ही खराब हो गया—हूं, नौकरी वाला लड़का चाहिए.’
कहीं उसने यह सुन तो नहीं लिया, यह सोचते हुए उसने पीछे मुड़कर देखा—‘गली के मोड़ पर बिम्मों श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़े खड़ी थी.
प्रस्तुति: विनायक
कदम-कदम पर हादसे’ से

Tuesday, September 28, 2010

पिंजरे का पंछी

सुनो, रमेश रात की गाड़ी से गांव जाने की बात कह रहा है.’ इस पर पति ने एकबारगी चौंककर देखा-पत्नी का चेहरा बुझा हुआ था.
तुमने समझाया नहीं इसे?’ और गुस्से से फाइल मेज पर पटक वह टाई की ना॓ट खोलने लगा.
अब उसे कितना और समझाऊं? कितने बहाने करूं? तुम उसे वर्कचार्ज में ही एडजस्ट कर देते तो इसी बहाने वह यहां पड़ा रहता. आखिर तुम्हारा छोटा भाई है.’
अब वह पत्नी को कैसे समझाए कि उसका पति नाममात्र का इंजीनियर है या ए... एक्सीएन(अधिशासी अभियंता) ने अपने गांववालों को कितनी जल्दी एडजस्ट करा दिया.
सविता तुम नहीं समझोगी हमारे आफिस की राजनीति. ये रमेश का बच्चा हाईस्कूल कर लेता तो मैं एक्सीएन की खुशामद कर लेता. अब चपरासी तो मैं इसे लगवाने का नहीं.’ उसे लगा कि वह सरासर झूठ बोल रहा था.
यह सब सुनने से पूर्व पत्नी उठकर रसोई में जा चुकी थी. जब लौटी तो उसके हाथ में चाय का कप था. पति का चाय का कप थमाते हुए बोली, ‘बुरा मत मानना, कहो तो रमेश के लिए अपने आफिस में ट्राई करूं?;
इतने में रमेश पिंटू को कंधे पर बैठाए आ गया और बोला‘भाभी, रात साढ़े दस बजे की गाड़ी है, सुबह सात बजे तक पहुंचा देगी. मैं स्टेशन से मालूम कर आया हूं.’ यह कहते-कहते उसने वितृष्णा से भरी नजर से बड़े भइया की ओर देखा और पिंटू को भाभी की गोद में दे दिया.
अभी वह ऊपर दुछत्ती में घुस भी नहीं पाया था कि पिंटू के जोर-जोर से डकराने की आवाज उसके कानों में पड़ी. वह तेजी से नीचे उतरा. भैया पता नहीं क्यों पिंटू के गाल पर थप्पड़ जड़े रहे थे. उसने लपक कर पिंटू को उठा लिया और बड़बड़ाने लगा-
कैसे राक्षस हैं ये लोग, मत रो पिंटू बेटे. मेरे बाद तो तेरी क्या हालत कर देंगे.’ और सीढ़ियां चढ़ता हुआ जोर से चिल्लाया‘भाभी, कान खोल कर सुन लो, आखिरी बार कह रहा हूं. अगर अगले महीने तक भैया ने नौकरी नहीं लगवाई तो मैं गांव मां के पास चला जाऊंगा.’
भाभी-भैया मुस्करा उठे. यह वाक्य तो पिछले एक साल से रमेश के मुंह से सुनते आ रहे हैं.
प्रस्तुति: विनायक
कदम-कदम पर हादसे’ से

उपकृत

मूसलाधार बारिश में रामदीन की कोठरी लगातार टपक रही थी. सुन्न कर देने वाली ठंड में रामदीन की पत्नी झुनिया भगवान को कोस रही थी और उसके दोनों बच्चे ‘बापू-बापू’ की आवाज में ठिठुरते हुए डकरा रहे थे.
रामदीन साहब का विश्वसनीय नौकर था, उनके बाप के जमाने का.
आज के नौकर बड़े हरामजादे होते हैं. न काम, न धाम, बस तनख्वाह बढ़ा दो.’ साहब ने यह बात उस वक्त कही जब रामदीन अंग्रेजी शराब की बोतल ले आया और बोरी का छाता सिर पर रखे, ठिठुरता हुआ आगामी हुक्म का मुंतजिर था.
भई नौकर है तो कमाल का.’ मेहमान ने कहा, ‘देखो, कहीं से भी लाया पर इतनी रात में इस ब्रांड की दूसरी बोतल मिलनी मुश्किल थी. पहली बोतल में तो मजा आया नहीं.’ यह कहते उन्होंने अपनी जेब में हाथ डालकर नोट निकाला और बोले—‘ये लो बाबा दस रुपये. बाल-बच्चों के लिए कुछ ले जाना. बड़ी ठंड पड़ रही है और देखो, तुम भीग गए हो, कहीं बीमार न पड़ जाओ.’
बाबा शब्द से रामदीन चौंक गया. अभी तो वह अड़तालीस साल का है. दाढ़ी रखने का यह मतलब तो नहीं कि आदमी बूढ़ा हो गया—‘रामदीन ले लो, हम तुम्हें खुशी से दे रहे हैं.’
इसपर कोठी के मालिक ने गर्वपूर्वक कहा, ‘ये हमारा वफादार नौकर है, एक पैसा बख्शीश का न लेगा.’
मालिक ने कहा, ‘अच्छा रामदीन रात हो गई है. तुम अब जाओ. आज हम तुमसे बहुत खुश हैं.’ ऐसा कहते ही उन्होंने एक पैग चढ़ा लिया और बुरा-सा मुंह बनाकर काजू की प्लेट की तरफ हाथ बढ़ाया.
यद्यपि रामदीन ठंड से बुरी तरह कांप रहा था, तथापि वह खुशी-खुशी कोठरी की ओर बढ़ रहा था, यह बताने के लिए आज मालिक उससे बहुत खुश हैं.
प्रस्तुति: विनायक
कदम-कदम पर हादसे’ से





Sunday, September 26, 2010

जरूर इस गांव में कुछ

रामेसरी ने गांव पाठशाला में पांचवी तो कर ली थी पर दादी ने उसे छह कोस दूर कस्बे के मिडिल स्कूल में नहीं जाने दिया. 14 साल की उम्र में उसके हाथ पीले कर दादी ने कहा‘कौन जाने यू किसना बयाह लायक कब होयगोचलो रामेसरी के हाथ पीले तो कर ही चली.’
अब इस गांव में न केवल मास्टर कालिज है, बल्कि कोआपरेटिव बैंक की शाखा भी है. छह कोस दूर कस्बे और गांव में पक्की सड़क बन जाने के कारण अंतर समाप्त हो गया है. वहीं खंड विकास अधिकारी, भूमि विकास बैंक तथा बीज निगम के शाखा कार्यालय हैं. रामेसरी की छोटी बहन किसना ने हाई स्कूल करके बीटीसी कर लिया और अब कन्या प्राथमिक पाठशाला में पढ़ा भी रही थी. अगर उसकी दादी जिंदा होती तो उसकी भी शादी हो गई होती. भला बीस साल तक कोई लड़की इस घर में कुंवारी रही है!
जब डाकिया ढेर सारी डाक कृष्णा देवी के नाम लाता तो गांववाले अचंभा करते, विशेषकर वे बेरोजगार लड़के जो ग्रेजुएट होकर वापिस आ गए थे और खेतों में जुटे थे. वे बड़े चाव से उन अखबारों/पत्रिकाओं को पढ़ते, जिनमें किसना की रचना छपी होती.
किसना, तू ऐसी रचनाएं क्यों लिखती है, जिनमें कोई मजा न हो?नए जमींदारों के अत्याचार, छोटे किसानों की कठिनाइयां, खंड विकास अधिकारी की धांधली और बड़े किसानों को कर्ज मिलने में आसानी....ये सब क्या है?’
तू समझता क्यों नहीं बिरजू! ये प्रेम-प्यार के किस्से तुझे क्या देंगे. कभी अपने बाप को देखा है, जिसने तुझे हसरत से पढ़ाया था. भूमि विकास बैंक ने तेरे घर को नोटिस भेजा है, क्या तू बर्दाश्त कर लेगा कि तेरे घर की कुर्की हो. क्या हुआ अगर किश्त अदा न की! कहां से दे? बाढ़ में सारी फसल मारी गई. जो फसल होती है उसे औने-पौने में खरीदा जाता है, जबकि सरकारी भाव कुछ और है! और इन नए जमींदारों ने तो आठ-आठ किश्तें अदा नहीं की हैं. उन्हें ये अधिकारी परेशान क्यों नहीं करते?’
बिरजू, अशोक, भैयाराम तथा अन्य किसान युवक किसना की बात को रोज-रोज मंत्र-मुग्ध होकर सुनते और जब घर लौटते तो उनमें बेचैनी भरी होती.
एक दिन गांव में पुलिस आई. उस समय किसना स्कूल में ही थी. यह इस गांव में असाधारण घटना थी कि पूछताछ के लिए जवान लड़की को शहर ले जाया जाए. अंग्रेजों के जमाने में भी पूछताछ होती थी, लेकिन तब औरत नहीं, आदमी ही सिपाहियों के साथ जाता था.
ग्राम प्रधान, स्थानीय नेता तथा बुजुर्ग ग्रामीणों ने अधिकारियों को समझाया कि किसना का बाप उसकी शादी के लिए बहुत परेशान है. उस लड़की का किसी राजनीतिक दल से कोई संबंध नहीं है. परंतु पुलिस अधिकारी का यह कहना था कि यह लड़की नक्सली है और गृहयुद्ध तथा सरकार पलटने की बात करती है. गांव की सीधी-सादी लड़की इतनी गहरी बातें कैसे लिख सकती है.
रामेसरी ने जब अपने पति से कहा कि वह अपने अधिकारियों से किसना को छुड़ाने की बावत बात करे तो वह बोला‘मैं तो मामूली सिपाही हूं. मैंने थानेदार को हर तरह से यकीन भी दिलाया, लेकिन साहब चिढ़कर बोले‘तो फिर उससे लिखवा दो कि भविष्य में ऐसे लेख नहीं लिखेगी और उसके लिए खेद व्यक्त करती है.’
फिर क्या हुआ?’ पति को चुप देख रामेसरी ने पूछा.
होना क्या है, ये किसना तो बहुत जिद्दी है. वह दुगुने उत्साह से कहने लगी कि अन्याय और गरीबों पर अन्याय के खिलाफ आवाज उठाकर मैं कोई गलत काम नहीं कर रही. छोटा किसान कब तक जुल्म सहता रहेगा. हर मार छोटे किसान पर होती है. उसे वक्त पर पानी नहीं मिलता, बीज नहीं मिलता, खाद नहीं मिलती. और ये नए जमीदरान मौज उड़ाते हैं. अब तू ही बता रामेसरी, उसे कैसे छुड़वाऊं?’
इस पर रामेसरी ने अंदाजे से कहा‘जरूर ये भ्रष्ट अधिकारियों और प्रभावशाली बड़े किसानों के षड्यंत्र का फल है, ताकि उनकी पोल न खुल सके.’
तभी रामेसरी ने एक प्रकार का शोर सुना जो धीरे-धीरे स्पष्ट होता गया. बिरजू, अशोक, भैयाराम और अनेक युवक चिल्ला रहे थे‘किसना को आजाद करो, बेईमान मुर्दाबाद! जब तक दम में दम है, अन्याय से टकराएंगे.....’
रामेसरी को यकीन हो गया कि इस गांव में जरूर कुछ होने वाला है.

प्रस्तुति: विनायक
यूएसएम पत्रिका, 1978

Saturday, September 25, 2010

दूसरा सुदामा

वह स्वागत कक्ष में अन्य उम्मीदवारों की तरह बैठ गया, जो मंत्रीजी को अपनी तकलीफें सुनाने आए थे. लोग उसके मैले कुर्ते-धोती की तरफ घूर रहे थे और वह निगाह चुराते हुए सामने दीवार पर टंगी अधनंगे गांधीजी की आयल पेंटिंग को लगातार देख रहा था. पत्नी ने कहा था
तुम भूखे मरो, पर बच्चों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है. इस मरे अखबार ने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा. जवान लड़की की शादी कब करोगे? कुछ तो अपने सफेद बालों का लिहाज करो.’
इस पर वह कुछ न बोला तो पत्नी बिफर पड़ी-‘मैंने दो बजे रात को तुम्हारे दोस्त के लिए चाय बनाई है. ताजा खाना बनाकर खिलाया है. तुम अगर उसके पास नहीं गए तो मैं बाल-बच्चों को जहर खिला दूंगी.’
पर भागवान! इतनी दूर जाना है, कम से कम सौ रुपये तो होने चाहिए!’ पत्नी यह सोचकर कि उसके पति को भगवान ने अकल दे दी है, दुगने उत्साह से पड़ोसन के यहां गई और न जाने किस जुगत से एक सौ रुपये ले आई.
अचानक कक्ष में बेचैनी फैल गई. नेता, पत्रकार, व्यापारी से लगने वाले चेहरे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए. जवाब में मंत्रीजी मुस्कराते हुए सबका अभिवादन करने लगे. अचानक उनकी नजर फटेहाल दाढ़ी वाले व्यक्ति पर पड़ी.
अरे, शशांक तुम?’ मंत्रीजी ने अपने लंगोटिया यार को तुरंत पहचान लिया और उसका हाथ पकड़कर अपने कक्ष में चले गए. लोगों को अचंभा हुआ कि मंत्री महोदय कैसे-कैसे सड़ियल लोगों से दोस्ती रखते हैं. शशांक तो जैसे गदगद हो गया.
भाभी-बच्चे कैसे हैं?’ मंत्रीजी ने उत्साहवश पूछा तो शशांक ने दुगने उत्साह से कहा‘तुम्हारी भाभी ने इतना जोर डाला कि मुझे मजबूरन आना पड़ा.’ मंत्रीजी ने घंटी बजाकर काफी लाने का आर्डर दे दिया.
आने में तो कोई दिक्कत नहीं हुई? मुझे लिख देते, सीट रिजर्व हो जाती.’ अचानक शशांक को अपनी सारी देह दुखती मालूम पड़ी. गाड़ी में इतनी भीड़, उफ्! बामुश्किल टट्टी के पास बैठने लायक जगह मिली थी.
सर! सेठ रामदास जाने को कह रहे हैं.’ सेक्रेटरी ने चिक उठाते हुए अंदर झांका और आंखों ही आंखों में दोनों के बीच कुछ कहा गया.
शशांक मैं इन लोगों को भेजकर अभी आया, तुम आराम से बैठो.’
शशांक लंबी यात्रा के कारण थका हुआ था. काफी पीते ही उसे ऐसी झपकी आई की गहरी नींद सो गया. जब उसकी आंख खुली तो शाम हो चुकी थी. नौकर उसे जगाकर चाय देकर जाने लगा तो उसने पूछा आपके मंत्रीजी कहां हैं?’
हुजूर, बड़े मिनिस्टर का फोन आया था, दिल्ली से. वो हवाई जहाज से गए हैं, चार दिन के लिए.’
चार दिन के लिए?’
हां, हुजूर, वो कह गए हैं कि आपको कोई तकलीफ न होभोजन कैसा लेंगे?’
शशांक कुछ बोल न सका. उसको बिस्कुट का स्वाद मिट्टी जैसा लगने लगा.
अर्दली ने फोन मिलाया और अपने अधिकारी को अवगत करा दिया. अधिकारी ने मंत्रीजी से कहा‘सर, शशांक नाम का आदमी चला गया है.’
मंत्रीजी उस समय स्थानीय डाक बंगले पर लजीज भोजन कर रहे थे. अधिकारी की बात पर वे तनिक मुस्कराए और इत्मीनान से पानी का गिलास उठाकर पीने लगे.
प्रस्तुति: विनायक
जगदीश कश्यप के लघुकथा संग्रह 'कदम-कदम हादसे' से

Friday, September 24, 2010

पेपर वेट

वे मुख्यमंत्री के साथ दिल्ली आए थे. उन्होंने मुख्यमंत्री से अपने क्षेत्र का अचानक दौरा करने के लिए इजाजत ली थी. उन्हें नहीं मालूम था कि उनका कार्यक्रम इतना व्यस्त हो जाएगा और पल-भर भी चैन नहीं मिलेगा.
मैंने कहा, ‘उठो साहब!’ उपमंत्री को झंझोड़ा गया तो उन्होंने मिचमिचाती आंखों से क्रोध भरकर देखा कि भीड़ का एक रेला उसके कमरे में विद्यमान था. कुछ लोग हाथ जोड़े हुए थे. उपमंत्री तुरंत ही चेहरे पर सौम्यता लाए और बोले-‘कहो भई मधुकर, कैसे हो?’ तुम कल दिखाई नहीं दिए?’
मधुकर स्थानीय अखबार का रिपोर्टर था और उसने अपने दोस्त को जिताने में ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था. मधुकर बोला-मैं बाद में पहले इन लोगों की फरियाद सुनो. नगर प्रशासन ने इन लोगों के घर यह कहकर गिरा दिए थे कि वे नगरपालिका की जमीन पर बने थे. अब बताओ, ये लोग कहां जाएं?’
उपमुख्यमंत्री यह सुनते ही रोष में आ गए और सैक्रेटरी को बुलाकर फोन मिलाया. चैयरमेन को फोन पर बुरा-भला हो. इसी प्रकार परगनाधिकारी से भी बातचीत की.
आप लोग जाएं. मैंने बात कर ली है. मैं इस केस को पूरी तरह देखूंगा.’ गरीब मजदूर जी-हुजूर माई-बाप कहते हुए चले गए.
कहो मधुकर, कैसा चल रहा है?’
तभी सेक्रेटरी ने बीच में आकर कहा—‘चीफ मिनिस्टर जी आपसे बात करना चाहते हैं.’ उपमुख्यमंत्री ने चोगा कान से लगाकर कहा—‘यस सर!’
उधर से कुछ कहा गया तो उपमंत्री विशेष अंदाज में सावधान हो गए और बोले—‘मैं अभी रवाना हो रहा हूं. सारी सर, वेरी सारी यहां लोगों के घर गिरा दिए गए थे, उसी सिलसिले में फंस गया था...यस...यस सर, नहीं मैं इस मामले में नहीं पड़ना चाहता. अवैद्य निर्माण होंगे तो गिरेंगे ही. इसमें ह कर क्या सकते हैं...डांट वरी सर, मैं अभी रवाना हो रहा हूं.’
उपमंत्री ने हड़बड़ी वाले अंदाज में मधुकर की ओर देखा—‘अच्छा मित्र! वैरी सारी, मैं तुमसे काफी बात करना चाहता था. आओ तुम मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें बीच में ड्राप कर दूंगा.’
मधुकर घृणापूर्वक अपने लंगोटिया यार को घूर रहा था. उपमंत्री ने स्थिति की नाजुकता को भांपते हुए कहा-‘क्या अपने घर एक कप चाय नहीं पिलाओगे?’
मित्र की इस बात पर मधुकर ठगा-सा रह गया और प्रसन्नतापूर्वक बोला—‘अरे, क्यों नहीं.’
उपमंत्री के होठों पर रहस्यमयी मुस्कान उभर आई.
प्रस्तुति : विनायक
लेखनकाल लगभग 1980

Thursday, September 23, 2010

रखैल का रखवाला

मैंने अपने सामने बैठे साहित्यशास्त्र की प्रतिमूर्ति से कहा-‘तो फिर तुम्हारे ख्याल में हमारे समाज की सबसे पुरानी संस्था ‘विवाह’ को बनाए रखने में क्या लाभ? तुमने अभी नीना गुप्ता का जो उदाहरण दिया उससे तो यही सिद्ध होता है कि वह विवाह संस्था को अंगूठा दिखाकर कुंआरी मां बन गई.’

इस बार मित्र का चेहरा तमतमा उठा. चाय का आखिरी घूंट खत्म करते हुए और समोसे-बरफी मिश्रित डकार लेते हुए बोले-‘सुनो जिस दिन हमारे समाज में विवाह-संस्था टूट जाएगी-समझो चारों ओर अनैतिकता फैल जाएगी. मैं विवाह संस्था को समाज के लिए अनिवार्य मानता हूं.’
लेकिन मित्रवर, आपने तो कहा है कि लघुकथा को अगर विधा मान भी लें तो इसमें क्या हानि है? और अगर इसे उपविधा मान लें तो इसमें क्या हानि है?’
हां, यह तो मैं अब भी कहता हूं. इसमें बुरा क्या है?’
‘‘नहीं-नहीं, इसमें कोई बुराई नहीं. अगर तुम विवाह संस्था को मानकर अपनी लड़की की शादी कर दो तो इससे लाभ क्या है? और तुम्हारी लड़की किसी की रखैल बनकर रहे तो इसमें नुकसान क्या है....मित्र जितना गुस्सा तुम्हें आया है, उससे कहीं अधिक गुस्सा हमें तुम्हारे ऊल-जुलूल वक्तव्यों पर आता है. जब कोई रचना प्रक्रिया विधागत स्वरूप ग्रहण करती है, उसके पीछे एक शास्त्र-सम्मत तर्क होता है. अच्छा तुम ईमानदारी से बताओµ‘क्या तुम विधि-सम्मत पत्नी के बजाय रखैल रखना पसंद करोगे?’’
मैं कुछ और कहता, इससे पहले वह गुस्से में अपना झोला संभाले उठ खड़ा हुआ बोला-‘मित्र मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी.....मैंने तुम्हारे लिए क्या-क्या नहीं किया, पर तुमने साहित्यिक माहौल को अश्लील बनाकर रख दिया. आखिर तुमने साहित्य को दिया ही क्या है?’
ऐसा कहते ही उसने प्लेट में रखा आलू का चिप्स उठाकर उसने मुंह में रखा और बोला-‘देखो ये बातें लिख मत देना, वरना मैं कहीं का नहीं रहूंगा. अच्छा चलो, मीठा पान खिलाओ.’

प्रस्तुति विनायक
यूएसएम पत्रिका, मार्च-अप्रैल-1989