Friday, August 27, 2010

जन–गण–मन

चवन्नी लेकर फीते जैसी सफेद देसी चुइंगम, तिरंगी झण्डी वाली सींक पर लपेटकर फेरी वाले ने बच्चे के हाथ में थमाते हुए कहा–"लो बेटे, आज दो–दो मज़े लो. आज आज़ादी का दिन है. मिठाई खाओ और इसके तिरंगे झंडे को लहराओ!"
मिठाई का फ़ीता मुँह में चबाते हुए मुन्ने की निगाह में सुबह का दृश्य घूम गया. स्कूल में तिरंगा झंडा लहराते हुए हेड मास्टर जी को उसने देखा था और सबने 'जन–गण–मन' गाया था.
मुन्ने ने कुछ सोचा और आस–पास खेल रहे मुहल्ले के चार–पाँच बच्चों को पास बुलाया. फिर वह छत पर चढ़ गया और मुंडेर के एक छेद में तिरंगी झंडी युक्त सींक को फँसा कर नीचे उतर आया–
"आओ हम भी झंडा लहराएंगे और जन–गण–मन गाएंगे."
इस पर पिंटू ने मुन्ने की ओर हिक़ारत से देखा और बोला– "तुमने इस झंडी की मिठाई हमें नहीं खिलाई....हम नहीं गाते जन–गण–मन!" और सभी उसे चिढ़ाते हुए भाग गए.
वह रुआंसे अंदाज़ में माँ के पास गया और बच्चों की शिकायत करते हुए अपने साथ 'जन–गण–मन' गाने की जिद करने लगा. माँ ने घर के काम में व्यस्त होने का बहाना बनाते हुए उसे झिड़क दिया. वह फिर उदास हो गया.
कुछ सोचता हुआ मुन्ना बाहर आया। ख़ुद को आदेश देते हुए वह सावधान–विश्राम की कवायद करने लगा और सैल्यूट मारते हुए तन्मय होकर गाने लगा–
"जन–गण–मन अधिनायक जय हे...!" झंडी हवा में फड़फड़ा रही थी. मुन्ने ने देखा कि चींटियों की एक लकीर उस मीठी सींक पर चढ़-उतर रही थी.
प्रस्तुति : विनायक

Thursday, August 26, 2010

जगदीश कश्यप की लघुकथाएं

जगदीश कश्यप हिंदी के अप्रतिम लघुकथाकार थे. हिंदी लघुकथा के स्वरूप को तय करने तथा उसको रचनात्मक ऊंचाई देने में उनका योगदान अन्यतम है. उन्होंने हालांकि गिनी-चुनी लघुकथाएं ही लिखीं. समीक्षात्मक लेखन भी बहुत सीमित है. पर बीजस्वरूप उन्होंने जो भी लिखा, वह हिंदी लघुकथा के इतिहास में मील का पत्थर है. वे हिंदी लघुकथा से उस दौर में जुड़े जब लघुकथा को कोई विधा मानने को तैयार नहीं था. एक समर्पित सेनानी की भांति वे लघुकथा के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे. एक प्रसंग याद आता है. उन दिनों ‘वर्तमान साहित्य’ गाजियाबाद से प्रकाशित होती थी. जगदीश कश्यप को मैंने उनके संपादकों से मात्रा एक लघुकथा छापने का अनुरोध करते हुए देखा था. उन दिनों जगदीश कश्यप की लघुकथाएं ‘सारिका’ जैसी पत्रिकाओं में धड़ल्ले से प्रकाशित होती थीं, जो वर्तमान साहित्य की अपेक्षा प्रतिष्ठित पत्रिका थी. मगर ‘वर्तमान साहित्य’ लघुकथा छापने से परहेज करती थी. जगदीश कश्यप चाहते थे कि वह भी लघुकथा छापना शुरू करे, ताकि वह विधा के रूप में प्रतिष्ठित हो सके.
वे एक सच्चे और साफ-दिल इंसान थे. अपनी साफगोई के कारण अनेक बार वे विवादों में फंसे. उनकी सीमा थी कि वे साहित्यिक विवादों को व्यक्तिगत स्तर से ऊपर न उठा सके. पर यह सीमा तो उन सभी लघुकथाकारों की भी थी, जो उन विवादों में कहीं न कहीं लिप्त थे. विवादों के व्यक्तिगत हो जाने का नुकसान हिंदी लघुकथा आंदोलन को उठाना पड़ा. उसकी चमक लगातार फीकी पड़ती गई. तो भी मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि हिंदी लघुकथा का सर्वोत्तम दौर वही था, जब जगदीश कश्यप उसमें सक्रिय थे. लघुकथा को लेकर जो कसौटी उन्होंने बनाई, सूत्र-रूप में जो भी लिखा, हिंदी लघुकथा आज भी उसी के इर्द-गिर्द डटी है.
इस ब्ला॓ग की परिकल्पना हिंदी के देसी-विदेशी पाठकों तक जगदीश कश्यप की लघुकथाएं पहुंचाने के लिए की गई है. उम्मीद है जिन विवादों को वे उम्र-भर जीते रहे, यह ब्ला॓ग उनकी छाया से स्वयं को दूर रख सकेगा. इस बहाने जगदीश कश्यप और हिंदी और लघुकथा की वर्तमान स्थिति पर सार्थक बहस हो सकेगी.
                                                                विनायक

जगदीश कश्यप की लघुकथाएं: पहला उम्मीदवार

जगदीश कश्यप की लघुकथाएं: पहला उम्मीदवार: "इंटरव्यू के लिए आए इतने आदमियों को देखकर उसे कोई अचंभा नहीं हुआ. लेकिन चपरासी की पोस्ट के लिए इतनी लंबी भीड़ उसने पहली बार देखी थी. हर बार ..."

जगदीश कश्यप की लघुकथाएं: जगदीश कश्यप की लघुकथाएं

जगदीश कश्यप की लघुकथाएं: जगदीश कश्यप की लघुकथाएं: "जगदीश कश्यप हिंदी के अप्रतिम लघुकथाकार थे. हिंदी लघुकथा के स्वरूप को तय करने तथा उसको रचनात्मक ऊंचाई देने में उनका योगदान अन्यतम है. उन्हों..."

पहला उम्मीदवार

इंटरव्यू के लिए आए इतने आदमियों को देखकर उसे कोई अचंभा नहीं हुआ. लेकिन चपरासी की पोस्ट के लिए इतनी लंबी भीड़ उसने पहली बार देखी थी. हर बार की तरह वह इस बार एम. . तक के प्रमाणपत्र लाना उचित न समझा, क्योंकि फार्म में तो कुल हाई स्कूल ही भरा था. जब उससे पूछा जाएगा कि इतने साल वह क्या करता रहा तो उसका सीधा-सा जवाब होगा
साब! इतने दिन में भाई की दुकान पर चाय बनाता रहा हूं. शादी होने के कारण अब वह मुझसे अलग हो गया, अतः सारे घर का भार मुझ पर ही आ गया है. मुझे हिंदी-अंग्रेजी की टाइप भी आती है.'
नहीं-नहीं!’ वह ये शब्द नहीं बोलेगा. नहीं तो खामख्वाह शक हो जाएगा.’
मास्टरजी, आप यहां?’ किसी न उसे टोका तो वह हड़बड़ा गया. वह गणेशी था. जिसे उसने हाई स्कूल में टयूशन पढ़ाया था.
तू यहां कैसे गणेशी?’ उसे समझ रहा था कि गणेशी ने भी चपरासी की पोस्ट के लिए फार्म भरा होगा.
मास्टरजी आपकी दुआ से हाईस्कूल पास कर लिया. पर आई. टी. आई करने के बाद भी खाली हूं. इस बार फार्म भरा है. यहां चाचा का लड़का स्टोरकीपर है. क्या पता काम बन जाए! पर आप यहां कैसे?’
तत्काल ही उसके मुंह से निकला‘चाचा का लड़का गांव से आया था. उसने भी फार्म भरा है. उसी को ढूंढ रहा हूं, न जाने कहां चला गया है! अच्छा मैं अभी आया.’ कहते ही वह पलट पड़ा.
इंटरव्यू के लिए पुकार शुरू हुई‘मिस्टर रवि कुमार!’
कोई नहीं बोला तो दुबारा पुकारा गया. इस बार सब लोग एक-दूसरे के चेहरे देखने लगे. जब तीसरी बार जोर से पुकारा गया तो आपस में खुसर-पुसर होने लगी.
उधर गणेशी सोच रहा था‘रविकुमार तो उसके मास्टरजी हैं.’
प्रस्तुति : विनायक