Sunday, September 5, 2010

दर्पकाल

थपथपाहट की आवाज के सुनकर जब लोहे जैसे मजबूत मर्द ने दरवाजा खोला तो पाया कि उसके सामने एक खूबसूरत नौजवान खड़ा था.
सुना है, तुम्हें अपने शरीर पर अत्यंत घमंड है? तुमने अब तक सभी पहलवानों को पछाड़ दिया है?’ आगंतुक एक ही सांस में बोल गया.
क्या तुम भी अपनी हड्डी-पसली तुड़वाने आए होपर तुम्हारा नाम क्या है?’ पहलवान ने क्रोधित होकर पूछा.
समय!’ आगंतुक ने धीरे-से कहा.
खैर, तुम कोई भी हो, आओ मेरे पिछवाड़े के अखाड़े में.’
दोनों अखाड़े में उतर गए. हाथ मिलाते ही उस खूबसूरत नौजवान ने मजबूत मर्द के गाल पर भरपूर शक्ति से चांटा मारा. वह पहवान लड़खड़ाया और उसी क्षण धूल चाटने लगा.
जब उसकी आंख खुली तो उसका एक-एक जोड़ दर्द कर रहा था. उसके चेहरे के चारों ओर मक्खियां भिनक रही थीं. वह अत्यंत कठिनाई से उठा और डगमगाता हुआ अपने कमरे की ओर बढ़ गया. शीशे में अपनी शक्ल देखते ही वह भय से चीख पड़ा. उसके चेहरे पर झुर्रियां उग आयी थीं. लंबी-लंबी दाढ़ी देखकर एकबारगी वह अपने चेहरे को पहचान भी न सका. उसने तत्काल ही पास रखा हुआ मुग्दर उठाया और धड़ाक शीशे पर दे मारा. ‘छन्न’ की आवाज से शीशे के टुकड़े फर्श पर बिखरकर रह गए, जिसमें उस बूढ़े की सैकड़ों शक्लें उसकी जवानी पर आंसू बहा रही थीं.

प्रस्तुति: विनायक
लघुकथा संग्रह ‘कदम—कदम पर हादसे’ से



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