Sunday, September 12, 2010

पेट का जुगाड़

सर आप यहां कैसे?’ इस आवाज से वह चौंक गया. एक सूटिड-बूटिड युवक उसके सामने खड़ा था यानी अशोक.
जरा संपादक से मिलने आया था, पर तुम यहां कैसे?’
सर, मैं यहीं सर्विस करता हूं. क्या आप अब भी पढ़ाने जाते हैं वहां? मैंने वहां कई बार फोन किया तो पता चला कि आप काफी दिनों से नहीं आ रहे हैं. उसके जी में आया कि वह शिष्य को बता दे कि वह टेम्परेरी पोस्ट थी. एक साल चल गई. वह गुरु की आवाज में बोला‘तुम यहां कब आए अशोक?’
आइए सर, स्आफ कैंटीन में चलकर का॓फी पीएंगे पहले. काफी दिनों बाद आप मिले हैं.’
साथ चलते-चलते अशोक ने बिना धुली कमीज, बेतरतीब बाल और दाढ़ी भरे चेहरे से अंदाजा लगा लिया होगा कि गुरुजी आर्थिक संकट में हैं.
कौन-सी पोस्ट पर हो?’
सर, मैं यहां संपादक का स्टेनो हूं, रियली सर, आप जैसी शार्टहैंड कोई नहीं पढ़ा सकता.’
और तुम्हारा दोस्त जीतू कहां पर है?’
सर, वो टीवी पर चला गया है.’
गुड, मुझे गर्व है कि मेरे शिष्य अच्छी जगहों पर लगे हैं.’
अच्छा अशोक, फिर आऊंगा, जरा जल्दी में हूं. संपादक से कहना कि मुझे मीटिंग में जाना है.’
पत्रिका की बिल्डिंग से बाहर आकर वह हांफने लगा. वह उस दृश्य की कल्पना करने लगा जब अशोक संपादक को बताएगा कि मास्टर गिरीश उसके गुरुजी हैं, तब संपादक कहेगा
बड़ा अजीब आदमी है. मैंने उसे प्रकाशक के दोस्त के यहां भेजने के लिए बुलाया था. प्रूफ के फर्मे ही तो पढ़ने थे, दो-चार सौ की इन्कम हो जाती. मीटिंग जरूरी थी या पेट का जुगाड़!’
प्रस्तुति: विनायक
लघुकथा संग्रह ‘कदम—कदम पर हादसे’ से

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