Friday, September 17, 2010

पहरुए : जगदीश कश्यप की एक लुप्तप्रायः लघुकथा

जब तक उसने उनींदी आंखों व थकान भरे शरीर से अलसाते हुए जूते उतारे, जब तक नव-पत्नी दो कप चाय बना लाई थी और वा॓ल क्लाक की तरफ देखने लगी. पांच बजकर पचीस मिनट हो चुके थे. पति ने शालीनतापूर्वक काफी का मग पकड़ा और धीरे-धीरे सिप करने लगा.
सारी रात कहां रहे?’
खूबसूरत पत्नी की प्रतीक्षरत आंखें और बासी लगने लगे मेकअप को देख वह धीरे-से बोला‘दरअसल, जिस लाज में रात में गया था, उसका मालिक मेरा पुराना दोस्त है. किसी ने थाने में उसके विरुद्ध रिपोर्ट लिखा दी कि मेरी हर्ट नाम की युवती का उसने अपहरण कराया है. डेली पेपर का डिस्ट्रिक्ट चीफ ब्यूरो होने के कारण पुलिस मुझसे खौफ खाती है. वरना दोस्त की वो धुनाई करते कि...’
पर आपको जाने की क्या जरूरत थी, फोन ही कर देते!’
वह कहना चाहती थी अभी शादी को दस दिन ही तो हुए हैं. परसों कश्मीर जाना था. एक हफ्ते के सैर-सपाटे को.
पता नहीं साले इस शहर के पत्रकार मेरे पीछे क्यों पड़ गए हैं. ला॓ज का मालिक मेरा बचपन का दोस्त है. उसका साथ कैसे छोड़ दूं. इतने बेईमान और भ्रष्ट लोग हैं इस शहर में पर इन लोगों को अफसरों के तलवे चाट-चाट कर विज्ञापन बटोरने और बाइज्जत लोगों पर कीचड़ उछालने के अलावा कोई काम ही नहीं है. अच्छा तुम दिनचर्या में लगो, मैं एक-दो घंटे सो लूं जरा. कोर्ट खुलने पर दोस्त की जमानत भी करानी है.’
तभी रबड़ के छल्ले में लिपटा अखबार ‘फटाक’ से पहली मंजिल पर आ गिरा. पत्नी ने अखबार उठाया और खोलकर मोटे-मोटे हैडिंग पढ़ने लगी. उसकी नजर नीचे के छोटे हेडिंग पर भी पड़ी
कालगर्ल से रंग-रेलियां मनाते हुए पत्रकार बरामद’. अनैतिक धंधों के अड्डे का भंडाफोड़.’ वह तेजी से पूरा समाचार पढ़ गई. उसका दिल धक-धक करने लगा. कहीं उसके पति ने कोर्ट मैरिज कहीं उसे भी काॅलगर्ल बनाने के लिए तो नहीं की! वह जख्मी शेरनी की तरह बाथरूम से पलटी और सड़ाक से सोते पति पर अखबार दे मारा-
पढ़ो अपने कारनामे! अब मैं कहीं की नहीं रही. मां-बाप से विद्रोह कर, तुमसे शादी की और तुम....इतने नीच निकले.’
वह हड़बड़ाकर उठ बैठा. उसने अखबार को नजरों से मिलाया और कुछ देर बाद पत्नी की ओर मुखातिब हुआ‘सुनो श्रुति, यह खबर सच नहीं है. इन तथाकथित बड़े लोगों ने मिस मेरी को अपनी तरफ मोड़ लिया है. और अपहरण भी उन्हीं लोगों ने कराया है. मैं तो मेरी के जरिये इन सफेदपोश लोगों का भंडाफोड़ करने वाला था.’
वह थोड़ा रुका और धीरे-धीरे भर्राहट भरे स्वर में बोला‘तुम जो स्टेंड उठाना चाहो, उठाओ. पर शादी से पहले तुम मेरे काम करने के तरीके से वाकिफ थीं.’
मैं तुम्हारे चरित्र पर शंका नहीं कर रही, पर यह बताओ तुम पत्रकार लोग सच्चाई का सच्चाई के रूप में लेना कब सीखोगे?’
यह सुनते वह श्रुति को तुरंत करारा उत्तर देना चाहता था, पर यह क्या उसका मुंह खुला का खुला रह गया और वह बदहवास-सा बस पत्नी की ओर देखे जा रहा था.
प्रस्तुति: विनायक
वर्तमान हलचल, 1 से 15 जून, 1989 से

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