Monday, September 20, 2010

अनअपेक्षित

जगदीश कश्यप की एक लुप्तप्रायः लघुकथा

हमारा राजू नौकरी के लिए हाथ-पैर मार रहा है. लड़की का जहां भाग होगा, शादी हो जाएगी. पर तुम अपने को इतना मत घुलाओ जी. ऐसा कहते ही वह हांफने लगी. जवान बेटी ने धीरे-से मां का सिर उठाकर आले में रखी वैद्यजी की पुड़िया लेकर खोली और मां के मुंह में डाल दी. फिर पानी का गिलास लेकर उसके होठों से लगाया. दो-एक घूंट पीकर मां ने तकिये से सिर टिकाकर आंखें बंद कर लीं.
फौजी को जैसे कुछ याद आ गया था. वह पत्नी के पास से उठा और बैशाखी लगाकर बराबर वाले छोटे कमरे में आया.
बेटा राजू, जरा देखना, ये लिफाफा कहां से आया है?’ राजू उस समय शहर जाने की तैयारी कर रहा थाअपनी गर्ल फ्रेंड से मिलने. उसने उपेक्षित भाव से लिफाफे पर नजर डाली, इससे पहले उसने आहिस्ता से अपने बालों को संवारकर दीवार में लगे दर्पण में देखा.
वह एक नियुक्तिपत्र था जो प्राइवेट फर्म से आया थाचौकीदारी की पोस्ट के लिए. यानी उसका पेंशन याफ्ता फौजी पिता अब चौकीदारी करेगा. देश की चौकीदारी करते हुए तो वह अपनी एक टांग गंवा बैठा था.
‘....हुम्म, चौकीदारी! वह मन ही मन बड़बड़ाया.
अचानक राजू के दिमाग में आया कि वह नियुक्तिपत्र लेकर सीधा फर्म के मैनेजर के आगे गिड़गिड़ाए—‘सर, मेरे पिता को आराम की जरूरत है. देश की खातिर उन्होंने अपनी टांग गंवा दी है. अपनी तीन बीघा जमीन गिरवी रखकर उन्होंने मुझे पढ़ाया-लिखाया. ज्यादा पढ़-लिख गया तो क्या हुआ, मैं ये नौकरी करने को तैयार हूं.’
तू बोलता क्यों नहीं रे? कोई ऐसी-वैसी बात तो नहीं है!’
राजू के जी में आया कि वह बापू के सामने फूट-फूट कर रो पड़े.
प्रस्तुति: विनायक
भारत सावित्री’ में प्रकाशित(लेखनकाल संभवत: 1980-85)

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