जगदीश कश्यप की बेहद चर्चित लघुकथा
ड्राइंगरूम मैं फैल रही मादक कहकहों की गूंज के बीच वह बोला, ‘क्यों नहीं...क्यों नहीं सर, अभी इंतजाम हो जाता है, आप फिक्र न करें, मैं अभी आया.’
वह रसोई में आया तो पत्नी बदहवास-सी शायद तड़की हुई दाल गर्म कर रही थी, ‘क्यों, खाना कब खाओगे?’
‘तुम ऐसा करो, एक प्लेट सलाद और बना दो और हां, जरा मां को तो बुलाओ...कहां है?’
‘अपने कमरे में, क्यों...?’
‘जरा बुलाओ तो...आज तुम बहुत खूबसूरत लग रही हो.’
‘देखो ज्यादा मत पी लेना...आप पहले ही.’ पतिव्रता पत्नी कुछ और कहना चाहती थी, पर पति की लाल आंखें देखकर वह पल्लू से पसीने वाला मुंह पोंछती हुई निकल गई.
मां रुद्राक्ष की माला जपते हुए बेटे तक आई तो शराब की तीखी गंध से दो कदम दूर रुकती हुई बोली, ‘हां, बोल क्या काम है...खाना-वाना हो गया?’
‘वो तो हो जाएगा मां...मेरी प्यारी मां, साहब आज बहुत खुश हैं. जरा एक बात कहनी थी, पिताजी से कुछ मंगवाना था.’ ऐसा कहते ही वह खिसियाए अंदाज में मुस्कराया और डगमगाता हुआ खड़ा होने की कोशिश करने लगा.
मां को अब उसके ऐसे अंदाज पर गुस्सा नहीं आता है. इन दो वर्षों में ही उसने जर्जर पुश्तैनी मकान को तुड़वाकर नया बनवा लिया है, जिसे गिरवी रखकर लड़की के हाथ पीले किए थे. बच्चे महंगे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ रहे हैं. बहू को भी मनपसंद साड़ियों से लाद दिया है और सबसे बड़ी बात तो यह है कि लोग उसको ‘आवारा निखट्टू’ के बजाय ‘अफसर’ कहने लगे हैं. बाप तो जिंदगी-भर बाबू रहा और उसी पर रिटायर हुआ.
‘क्या सोच रही हो मां? अभी उन लोगों को खाना खिलाना है.’
तभी पिता उसके सामने आ खड़े हुए तो उसने चेहरा झुका लिया. बेटे की मादक हालत देखकर वह बोले, ‘क्यों, क्या हुआ रवि, खाना-वाना नहीं हुआ?’
‘वो पापा, साहब के लिए...’
‘हां-हां क्या लाना है, बोल क्या लाना है?’ और पत्नी को थैला लाने का आदेश दिया.
उसे यकीन था कि शराब का नाम सुनते ही पिताजी उबल पड़ेंगे—‘तेरी ये जुर्रत, बाप से ही शराब मंगवाए! अरे, इससे अच्छा होता मैं मर जाता. मैंने जिंदगी-भर बीड़ी को हाथ नहीं लगाया, बेईमानी-रिश्वत के पैसे की शान दिखाता है. थूकता हूं ऐसी तरक्की पर.’
मगर पिताजी बोले, ‘देखो बेटे तुम अपने साहब के पास बैठो. ला रवि की मां थैला दे, मुझे. बता किस ब्रांड की लानी है?’
उसका नशा हिरन हो गया और वह बस इतना कह पाया—‘ब्लैकहार्स!’
प्रस्तुति : विनायक
जगदीश कश्यप के लघुकथा संग्रह ‘नागरिक’ से
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