रुपये जेब में आते ही मैं बैंक वाले दोस्त की उपेक्षा और घटियापन वाली कड़बड़ाहट भूल गया था. मैंने उसे आश्वस्त कर दिया था कि मेरी ताजा छपी कहानी के पैसे आने ही वाले हैं. यद्यपि दोस्त को मेरी इस बात पर ज्यादा यकीन नहीं आया पर उसने हिदायत दी कि मैं लेखन के चक्कर में न पड़कर कोई एग्जाम क्वालीफाई करूं और मैंने इस संबंध में आश्वासन भी दे दिया था.
मैं किसी तरह जनरल स्टोर पहुंचकर थर्मस खरीद लेना चाहता था. मेरे दिमाग में यह भी था कि कोई अच्छी पिक्चर देखी जाए और किसी अच्छे रेस्तरां में बैठकर लजीज भोजन का आनंद लूं. वैसे भी थर्मस खरीदना मेरी जिम्मेदारी नहीं थी. किसी के घर की परेशानी से मुझे क्या लेना-देना! अलबत्ता पचास रुपये मैंने थर्मस खरीदने के लिए ही उधार लिए थे. दोस्त के तीन माह के बच्चे को रात-बिरात दूध चाहिए ही. एक दिन हड़बड़ी में दोस्त की पत्नी के हाथ से थर्मस फिसल गया था और अंदर का कांच चटख गया था.
अब मेरे कदम सिनेमा की ओर बढ़ रहे थे. अचानक मेरे सामने जनरल स्टोर की दुकान आ गई और मैं उसमें घुस गया. जब मैं बाहर निकला तो मेरे हाथ में 98 रुपये 50 पैसे वाली रसीद और सुंदर थर्मस का डिब्बा था. मैं बहुत ही भावुक हो उठा. थर्मस पाकर दोस्त की पत्नी आंसू निकाल लेगी और कहेगी---‘भाई साहब, आप हमारे बारे में इतना सोच रहे हैं. इस मुश्किल काम में हर कोई हमारा साथ छोड़ गया.’
‘भाभीजी, भगवान से प्रार्थना करो कि मैं आपके किसी काम आ सकूं. अभी तो मैं तीन वर्ष से बेरोजगारी भोग रहा हूं.’ मैंने धीरे-से दरवाजा खटखटाया. मायूस अंदाज में भाभी जी ने दरवाजा खोला. मैं अंदर दाखिल होते ही बोला—‘रवि कहां चला गया?’
‘पता नहीं, काफी देर हो गई गए हुए. क्या काम है?’
‘कुछ नहीं मैंने थर्मस के फीते को ऊंचा उठाते हुए कहा—‘यह रवि ने भेजा है, थर्मस है.’
भाभी मेरी बात सुनकर बुरी तरह चौंक गई. उसने बेइत्मिनानी से मेरी ओर देखा और सामने मेज की ओर उंगली से संकेत करते हुए कहा—‘पर थर्मस तो वो दोपहर को ही खरीद लाए थे. दूसरा थर्मस उन्होंने क्यों भेजा है?’
प्रस्तुति: विनायक
‘कदम-कदम पर हादसे’ से
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