Thursday, August 26, 2010

जगदीश कश्यप की लघुकथाएं

जगदीश कश्यप हिंदी के अप्रतिम लघुकथाकार थे. हिंदी लघुकथा के स्वरूप को तय करने तथा उसको रचनात्मक ऊंचाई देने में उनका योगदान अन्यतम है. उन्होंने हालांकि गिनी-चुनी लघुकथाएं ही लिखीं. समीक्षात्मक लेखन भी बहुत सीमित है. पर बीजस्वरूप उन्होंने जो भी लिखा, वह हिंदी लघुकथा के इतिहास में मील का पत्थर है. वे हिंदी लघुकथा से उस दौर में जुड़े जब लघुकथा को कोई विधा मानने को तैयार नहीं था. एक समर्पित सेनानी की भांति वे लघुकथा के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे. एक प्रसंग याद आता है. उन दिनों ‘वर्तमान साहित्य’ गाजियाबाद से प्रकाशित होती थी. जगदीश कश्यप को मैंने उनके संपादकों से मात्रा एक लघुकथा छापने का अनुरोध करते हुए देखा था. उन दिनों जगदीश कश्यप की लघुकथाएं ‘सारिका’ जैसी पत्रिकाओं में धड़ल्ले से प्रकाशित होती थीं, जो वर्तमान साहित्य की अपेक्षा प्रतिष्ठित पत्रिका थी. मगर ‘वर्तमान साहित्य’ लघुकथा छापने से परहेज करती थी. जगदीश कश्यप चाहते थे कि वह भी लघुकथा छापना शुरू करे, ताकि वह विधा के रूप में प्रतिष्ठित हो सके.
वे एक सच्चे और साफ-दिल इंसान थे. अपनी साफगोई के कारण अनेक बार वे विवादों में फंसे. उनकी सीमा थी कि वे साहित्यिक विवादों को व्यक्तिगत स्तर से ऊपर न उठा सके. पर यह सीमा तो उन सभी लघुकथाकारों की भी थी, जो उन विवादों में कहीं न कहीं लिप्त थे. विवादों के व्यक्तिगत हो जाने का नुकसान हिंदी लघुकथा आंदोलन को उठाना पड़ा. उसकी चमक लगातार फीकी पड़ती गई. तो भी मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि हिंदी लघुकथा का सर्वोत्तम दौर वही था, जब जगदीश कश्यप उसमें सक्रिय थे. लघुकथा को लेकर जो कसौटी उन्होंने बनाई, सूत्र-रूप में जो भी लिखा, हिंदी लघुकथा आज भी उसी के इर्द-गिर्द डटी है.
इस ब्ला॓ग की परिकल्पना हिंदी के देसी-विदेशी पाठकों तक जगदीश कश्यप की लघुकथाएं पहुंचाने के लिए की गई है. उम्मीद है जिन विवादों को वे उम्र-भर जीते रहे, यह ब्ला॓ग उनकी छाया से स्वयं को दूर रख सकेगा. इस बहाने जगदीश कश्यप और हिंदी और लघुकथा की वर्तमान स्थिति पर सार्थक बहस हो सकेगी.
                                                                विनायक

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