‘मुझे तुमपर दया आती है! आठ सौ रुपल्ली की खातिर तुम लोगों के दिन-भर पैर पकड़ते हो और उन्हें जूते-चप्पल पहनाते हो. अब तो तुम्हारा लेखन भी छूट गया है. लानत है तुम पर!’
दोस्त की लंबी झाड़ वह काफी देर से सुन रहा था. पर चुप रहा. उसने बची मूंगफली निकालकर दोस्त को थमा दीं और लिफाफे को एक ओर उछाल दिया. अब बाग में ऊंच-ऊंचे पेड़ों को देख वह बेंच पर पसर-सा गया. एकाएक उसमें फुरफरी-सी चढ़ी.
‘चलो चलते हैं, ठंडी ओस गिरने लगी है.’
दोनों बाग के बाहर चाय की दुकान पर आकर रुक गए. पहले उंगली के इशारे से दो चाय का आर्डर दुकानवाले को दिया. और बोला—‘वो तूने एक्जीक्यूटिव पोस्ट के लिए एप्लाई किया था, क्या हुआ?’
‘उसका तो कल इंटरव्य है. ढंग के कपड़े नहीं, जूते नहीं. दरबान भी घुसने नहीं देगा. उस एयर कंडीशंड शीशे वाले दरवाजे में.’
‘तू फिक्र मत कर यार, मैं तुझे अपनी दुकान से रेडीमेड पेंट और शर्ट दिलवा दूंगा. जूते भी. पैसे कटते रहेंगे मेरे हिसाब से. तू ढंग से इंटरव्यू देकर आ.’
चाय पीते-पीते शायद मुकेश के दिमाग में कुछ आया. वह धीरे से बोला-‘दोस्त कुछ नहीं होगा. वहां पहले ही उन्होंने अपना आदमी फिट कर लिया होगा. किराया भी बेकार चला जाएगा आने-जाने का. तू मुझे बता रहा था-‘तेरे शोरूम में एक आदमी की जरूरत है. क्या मुझे नहीं खपा सकता अपने यहां....’
राजू यह सुनते ही चौंक गया. उसे लगा मुकेश उसका मजाक उड़ा रहा है. पर उसकी नम हो आई आंखें देख, वह बोला—‘हिम्मत मत हार, तुझे इंटरव्यू देना होगा. मैं तुझे....’ और राजू का गला भर आया.
प्रस्तुति: जगदीश कश्यप
‘कदम-कदम पर हादसे से’